गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण मार्कण्डेय पुराणगीताप्रेस
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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...
श्राद्ध में विहित और निषिद्ध वस्तु का वर्णन तथा गृहस्थोचित सदाचार का निरूपण
मदालसा कहती है- बेटा! भक्तिपूर्वक लायी हुई कौन वस्तु पितरोंको प्रिय है और कौन वस्तु अप्रिय, इस बातका वर्णन करती हूँ; सुनो। हविष्यान्नसे पितरोंको एक मासतक तृप्ति बनी रहती है। गायका दूध अथवा उसमें बनी हुई खीर उन्हें एक वर्षतक तृप्त रखती है। जिस कन्याका विवाह गौरी-अवस्थामें हुआ है, उससे उत्पन्न पुत्रसे और गयाके श्राद्धसे पितर अनन्तकालतक तृप्त रहते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अन्नोंमें श्यामाक (सावाँ), राजश्यामाक, प्रसातिका, नीवार और पौष्कल-ये पितरोंको तृप्त करनेवाले हैं। जौ, धान, गेहूँ, तिल, मूंग, सरसों, कँगनी, कोदो और मटर-ये बहुत ही उत्तम हैं। मकई, काला उड़द, विप्रूषि और मसूर- ये श्राद्धकर्ममें निन्दित माने गये हैं। लहसुन, गाजर, प्याज, मूली, सत्तू, रस और वर्णसे हीन अन्यान्य वस्तुएँ, गान्धारिक, लौकी, खारा नमक, लाल गोंद, भोजनके साथ पृथक् नमक-ये श्राद्धमें वर्जित हैं। इसी प्रकार जिसकी वाणीसे कभी प्रशंसा नहीं की जाती, वह वस्तु श्राद्ध में निषिद्ध है। सूदमें मिला हुआ, पतित मनुष्योंके यहाँसे आया हुआ, अन्यायसे तथा कन्याको बेचनेसे प्राप्त किया हुआ धन श्राद्धके लिये अत्यन्त निन्दित है। दुर्गन्धित, फेनयुक्त, थोड़े जलवाले सरोवरसे लाया हुआ, जहाँ गायकी प्यास न बुझ सके-ऐसे स्थानसे प्राप्त किया हुआ, रातका भरा हुआ, सब लोगोंका छोड़ा हुआ, अपेय तथा पौंसलेका जल श्राद्धमें सदा ही वर्जित है। मृगी, भेड़, ऊँटनी, घोड़ी आदि, भैंस और चँवरी गायका दूध श्राद्धमें निषिद्ध है। हालकी ब्यायी हुई गौका भी दस दिनके भीतरका दूध वर्जित है। 'मुझे श्राद्धके लिये दूध दो' यों कहकर लाया हुआ दूध भी श्राद्धकर्ममें ग्रहण करनेयोग्य नहीं है।
जहाँ बहुत-से जन्तु रहते हों, जो रूखी और आगसे जली हुई हो, जहाँ अनिष्ट एवं दुष्ट शब्द सुनायी पड़ते हों, जो भयानक दुर्गन्धसे भरी हो-ऐसी भूमि श्राद्धकर्ममें वर्जित है। कुलका अपमान तथा हिंसा करनेवाले, कुलाधम, ब्रह्महत्यारा, रोगी, चाण्डाल, नग्न और पातकी-ये अपनी दृष्टिसे श्राद्धकर्मको दूषित कर देते हैं। नपुंसक, जातिबहिष्कृत, मुर्गा, ग्रामीण सूअर, कुत्ता और राक्षस भी अपनी दृष्टिसे श्राद्धको नष्ट कर देते हैं। इसलिये चारों ओरसे ओट करके श्राद्ध करे। पृथ्वीपर तिल बिखेरे। ऐसा करनेसे श्राद्धमें रक्षा होती है। श्राद्धकी जिस वस्तुको मरणाशौच या जननाशौचसे युक्त मनुष्य छू दे, बहुत दिनोंका रोगी, पतित एवं मलिन पुरुष स्पर्श कर ले, वह पितरोंकी पुष्टि नहीं करती। इसलिये श्राद्धमें ऐसी वस्तुका त्याग करना चाहिये। रजस्वला स्त्रीकी दृष्टि श्राद्धमें वर्जित है। संन्यासी और जुआरियोंका आना-जाना भी रोकना चाहिये। जिसमें बाल और कीड़े पड़ गये हों, जिसे कुत्तोंने देख लिया हो, जो बासी एवं दुर्गन्धित हो-ऐसी वस्तुका श्राद्धमें उपयोग न करे। बैंगन और शराबका भी त्याग करे। जिस अन्नपर पहने हुए वस्त्रकी हवा लग जाय, वह भी श्राद्धमें वर्जित है।
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